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पुण्यतिथि- अजेय योद्धा हमारे “अजयजी” की जीवनयात्रा

12 दिसंबर 1984 को देवास में जन्मे अजय जी इतने सरल और पारदर्शी थे कि उनके मन मे क्या है ये उनके चेहरे पर स्पष्ट देखा जा सकता था। मैं 2004 में जब देवास नगर विस्तारक के रूप में आया तो मुझे एक देव दुर्लभ 10-12 कार्यकर्ताओं की टोली प्राप्त हुई, उनके साथ संघ कार्य करने में मेरा मन ऐसा रम गया था कि ग्वालियर कब भूल गए पता ही नहीं चला। उसी टोली में से तीन लोग अपने जीवन का सर्वस्व भारत माता को भेंट चढ़ाने निकल पडे, उन तीन युवा साथियों में से एक थे हमारे अजय जी पाटीदार…सबसे अधिक वो मेरे साथ ही प्रचारक रहे, जब मैं 2004 में देवास नगर प्रचारक था तो वह सायं के नगर शारीरिक प्रमुख। अपनी साइकिल लेकर दिन भर संघ कार्य करना रात को भी कार्यालय पर ही रुक जाना ये अधिकांश दिनों की चर्या बन चुकी थी।
देवास संघ कार्यालय पर रात्रि विश्राम के समय विमल जी गुप्ता सायं कार्यवाह थे। हमारी टोली लगभग शनिवार रात्रि को कार्यालय पर रात्रि बैठक होती थी। सुबह अभ्यास वर्ग हुआ करता था। रात्रि हम सभी की अनोपचारिक मस्ती में तकिया मार चलता रहा सुबह तकिया कवर फटा हुआ देखते ही अजय जी बोल उठे ये तकिया कार्यालय की संपत्ति है और हमारे कारण यह फटा है और स्वयं अपनी जेब से 10 रुपये निकाल कर बोले 10 – 10 रुपया एकत्र करो तकिया का नया कवर लाना है।अजय जी की ऐसी दृष्टि कई बार तो मुझे भी प्रेरणा देती थी जहां तक मैं सोच पाता था हमारे अजय जी कई बार उससे दो कदम आगे की सोचते थे। उसी समय का एक और किस्सा याद आता है कि मेरी बनियान को फटे 3-4 दिन हो गए थे मैं नई लाने की सोच ही रहा था की एक दिन मेरे तकिए के पास नई बनियान रखी हुई मिली मैंने सभी से पूंछा कौन लाया है..? किसी को नहीं पता था पर बहुत देर बाद पता चला कि अजय जी आये थे मैने उनसे कहा कि तुम क्यों लाये तो उनके उत्तर ने मुझे हिलाकर रख दिया। उन्होंने कहा “आप और मैं अलग कब से हो गए। क्या मैं अपने शरीर की चिंता भी नहीं कर सकता।” यह वाक्य आज भी मेरे मन मस्तिष्क को झकझोर देता है।
संघ कार्य में अजय जी का मन इतना लीन हो गया था की वो भूल ही जाते थे कि वह बी फार्मा द्वितीय वर्ष का अध्ययन भी कर रहे है। मैं पढ़ने की बोलता था तो वो मुझ पर पृश्न खड़ा कर देते थे की आपने पीएचडी क्यों छोड़ी … कई दिनों तक टालने के बाद आखिर मुझे प्रमोद जी भाईसाहब के द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई। वो कहते थे कि “सुभाष चंद्र बोस के पिताजी ने उनसे कहा कि तुम्हारा पढ़ने में मन नहीं लगता इसलिये क्रांति करते हो इस पर बोस ने 1 वर्ष के लिए क्रांति छोड़कर आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर क्रांति में लग गए। उनके यह करने से देश की स्वतंत्रता आंदोलन एक वर्ष पिछड़ गया था“। राष्ट्र कार्य सर्वोपरि है तो मार्कशीट को क्या करना और इसी दृष्टि ने बी फार्मा द्वितीय वर्ष में ही पढ़ाई छोड़कर वे संघ के प्रचारक निकल गए। घर परिवार छूटने के बाद मैं अजय जी के परिवार का हिस्सा बन चुका था और अजय जी संघ परिवार का हिस्सा बन चुके थे। उनकी मां जितना उनको स्नेह करतीं थी शायद उससे कम स्नेह मुझे भी नहीं मिला। समाज कार्य करने में कई बार भोजन नहीं हो पाता था तो मां के हाथों बनाई गई दाल और जीरावन ही हम सबके शरीर और मन को संतृप्त करती थी।
होली हमारी टोली को बड़ी प्रिय थी एक बार हम सबको होली खेलते खेलते 4 बज गए तो तय हुआ कि अब सभी स्नान कर लेते है हम सभी ने स्नान कर लिया तो अजय जी ने विमल जी पर फिर से रंग डाल दिया तो विमल का गुस्सा होना भी स्वभाविक था और अजय जी का निर्बोध बालक की सब कुछ मुस्कराते हुए गुस्सा स्वीकारना कठिन होते हुए भी उनके लिए सहज था। मैंने पूंछा तो अजय जी उत्तर था कि अपने ही तो है अपनी दांत से अपनी जीभ कट जाती है तो क्या जीभ को दांत पर गुस्सा आता है..? प पू श्री गुरुजी का उदाहरण बताकर मानो मुझे कुछ समझा रहे हो ऐसा लगता था।
फिर सोनकच्छ तहसील विस्तारक इसके बाद बागली तहसील विस्तारक रहकर साथ कार्य किया। उस समय किसी के पास मोबाइल नहीं हुआ करता था कभी किसी फोन से कार्यालय के दूरभाष पर बात हो जाती थी बात करने को बहुत कुछ हुआ करता था जेब मे पैसे कम पड़ जाते थे। महीने में दो बार जिला बैठक और विस्तारक प्रचारक बैठक में मिलना होता था और बैठक के बाद सारी रात बातें हुआ करती थी। बातें क्या होती थी…कुछ भी..पर रात छोटी पड़ जाती थी। बैठक में जो विषय आते थे उनको एक बार फिर से व्यवहारिक अध्ययन अजय जी के साथ होता ही था तब जाकर ही हम सबको संतुष्टि मिलती और कार्य की गति और दिशा तय होती थी।
मक्सी तहसील प्रचारक का दायित्व जब अजय जी पर आया तब उनकी कार्य शैली काफी निखर चुकी थी। संगठन की अद्भुत क्षमता का प्रकटन तो मक्सी के कार्यकर्ता आज भी अनुभव करते ही होंगे। सभी लोगों से मिलना, सबको सुनना, समझना और ठीक तरह से समझाते हुए उनको कार्य मे लगा लेना। इस शैली से मक्सी का कोई भी कार्यकर्ता अपरिचित नहीं है। उस समय मक्सी नगर में जो कार्य हुआ वो अद्भुत था। हम सभी आपस मे चर्चा करते थे कि डॉ हेडगेवार जी ने कहा था की शहरी क्षेत्र में 3 प्रतिशत सक्रिय स्वयंसेवक चाहिए… । एक दिन फोन की घंटी बजी और अजय जी ने बिना किसी संबोधन के कहना शुरू कर दिया कि डॉ साहब के सपनो का मक्सी तो करके दिखा दिया, 25 हजार की जनसंख्या के मक्सी नगर में आज 800 स्वयंसेवक गणवेश पहन कर संचलन में निकले है… आज मेरा मन भी गर्वित हो रहा था कि अजय जी जैसे प्रचारक ही इस परंपरा के कुशल संवाहक है!
अजय जी जब आगर जिला प्रचारक थे तब भी मैं उसी विभाग (शाजापुर) का विभाग प्रचारक था उस समय विभाग के अन्य 3 जिलों में कोई जिला प्रचारक नहीं था। अजय जी वहां पुराने जिला प्रचारक थे तो स्वाभाविक है कि आगर जिले को समय कम देता था। अजय जी बार बार आने का आग्रह करते तो मैं कह देता कि पुराने जिला प्रचारक सह विभाग प्रचारक ही होते है, तो अनायास अजय जी के मुंह से निकला आप विभाग प्रचारक हो तो मैं तो अपने आप को विभाग प्रचारक ही मानता हूं बस महीने में कम से कम एक बार विभाग प्रचारक का चार्ज देने आ जाया करो बाकी हम सब कर लेंगे। कठिन परिश्रम का स्वभाव और आत्मविश्वास से कार्य करने की अद्भुत क्षमता अपने मे संजोए ऐसे थे अजय जी। जहां अजय जी रहते वहाँ से मैं आश्वस्त रहता था।
मैं खंडवा विभाग प्रचारक था तो अजय जी मेरे ही विभाग के बुरहानपुर में जिला प्रचारक थे। संयोग ऐसा की दो जिले का विभाग और खंडवा में कोई जिला प्रचारक नहीं तो मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया अजय जी अब एक जिला मेरे पास और एक जिला आपके पास अब प्रतिस्पर्धा होने दो तो अजय जी बोल पड़े कि आप 2 वर्ष पहले प्रचारक निकले आपका अनुभव अधिक है और आपकी हमारी प्रतिस्पर्धा कैसी… हम आप मिलकर काम करके संघ को गांव गांव तक स्थापित करेंगे। कई बार अजय जी के मुख से निकले शब्द हम सभी के लिए प्रेरणा का काम करते थे और हम दोनों भिड़ गए संघ कार्य के विस्तार में अनथक.. अविरल… ।बिना बताए कभी कार्यक्षेत्र नहीं छोड़ना, कभी भी असत्य नहीं बोलना ये उनके स्वभाव में सहज ही था।
पिछली बार खरगोन के प्रवास में अतुल जी माहेश्वरी, मैं और अजय जी का एक साथ रहना हुआ, फिर लग गया हम सभी का जमावड़ा और रात के कितने बज गए पता ही नहीं चला जो मन मे वो सब बिना छुपाए,बिना मिलावट के जस के तस कह डालना अजय जी नैसर्गिक स्वभाव था।
शाजापुर के प्रान्त सम्मेलन के पश्चात प पू सुदर्शन जी के साथ हम सभी प्रचारकों की परिचय बैठक चल रही थी उसमें अजय जी ने अपना परिचय कराया तो सुदर्शन जी ने कहा कि अजय तो वो होता है जो कभी जीत नहीं सका हो तुमतो अजेय हो तुमको कोई जीत नहीं सकता। प पू सुदर्शन जी के वो शब्द आज स्मरण आते है कि जो चला गया वो सचमुच … अजेय था।आज ऐसा लग रहा है कि मुझमें से कुछ चला गया जो अब लौट कर नहीं आएगा।फिर लगता है कि वो कहीं गये नहीं है वो कभी जाएगे ही नहीं वो तो रहेगे जीवन पर्यन्त… मुझमें ही नहीं मेरे जैसे सैकड़ो प्रचारकों में.. हजारों कार्यकर्ताओं में जो उनके संपर्क आये या उनके द्वारा गढ़े गए और भविष्य में असंख्य लोगों के हृदयों में जो उनके जीवन से प्रेरणा लेकर संघ कार्य मे संलग्न होंगे। ऐसे प्रचारक जीवन की भेंट चढ़ाकर असंख्य कार्यकर्ताओं को जीवन में प्रकाश भर जाते है…उनमें से ही एक दीप थे हम सभी के आत्मीय अजय जी….!
लेखन- विनय जी दीक्षित

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