राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक स्वर्गीय श्री सुदर्शन जी एक ऐसे विभूतिमत्व थे, जिन्होंने अपनी अविचल ध्येयनिष्ठा, पारदर्शिता, अनथक परिश्रम और प्रखर प्रज्ञा से श्रेष्ठ जीवन के प्रतिमान प्रस्तुत किये और अपने स्नेहिल, आत्मीय और निष्छल व्यवहार से संघ के स्वयंसेवकों और देश-हितैषियों को चैतन्य और विश्वास प्रदान किया ।
अपने प्रखर व्यक्तित्व और समर्पण के कारण उन्होंने केवल संघ में ही नहीं अपितु संपूर्ण सामाजिक जीवन में एक विशिष्ट स्थान और सम्मान प्राप्त किया। मध्यप्रदेश उनकी जन्मभूमि रही और लंबे समय तक कर्म-भूमि भी। यहां उन्हें निकट से देखने वालों ने उनमें सरलता, निष्कपटता और बालसुलभ पारदर्शिता के दर्शन किए हैं। संघ के विचारों और कार्यों के हित में वे कठोर से कठोर निर्णय लेते थे, शाखाओं और प्रशिक्षण वर्गों में वे स्वयंसेवकों का पसीना निकाल देते थे। किसी भी काम में जरा सी भी कमी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सायं शाखा पर खेलते-खेलते कोई शिशु या बाल स्वयंसेवक घायल हो जाए तो उसकी वे ऐसी चिंता करते जो शायद उसके परिजन भी न करते होंगे। भोपाल की एक शाखा में जब एक शिशु स्वयंसेवक के हाथ में चोट लगी तो वे 15 मिनिट तक उसकी मालिश करते रहे थे।
स्वभाव में सहजता और सरलता
सहजता और सरलता उनके स्वभाव में थी। 1964 में वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक बनाये गए। द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोळवलवकर एक कार्यकर्ता-बैठक में आए थे। इस बैठक में शामिल कार्यकर्ताओं से श्री गुरूजी ने दो व्यक्तियों का परिचय कराया था। इनमें एक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, और दूसरे का परिचय कराते हुए उन्होंने कहा था ‘‘यह जो दुबला पतला लड़का माईक ठीक कर रहा है न, उसे माइक वाला मत समझ लेना। ये टेलिकम्यूनिकेशन में इंजीनियर है और आज से आपका प्रांत प्रचारक है।’’ माइक सुधारने वाले वे व्यक्ति थे सुदर्शन जी। इससे पूर्व वे महाकोशल प्रांत में विभाग प्रचारक थे। प्रांत प्रचारक बनते ही उन्हेांने व्यापक प्रवास किया । मध्यभारत में यदि आज संघ और संघ-प्रेरित संगठनों की मजबूत आधारभूमि है तो उसमें सुदर्शन जी का उल्लेखनीय योगदान है। कार्यक्षेत्र और कार्यकर्ताओं का आकलन करने और उन्हें कार्यविस्तार की दृष्टि देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी।
स्वयंसेवक के सुख-दुख में सहभागी
स्वयंसेवक के सुख-दुख में सहभागी होने को लेकर वे बहुत आग्रही थे। समिधा कार्यालय में खाना बनाने वाले एक युवक की मां बीमार हो गईं तो उनसे मिलने वे रायसेन जिले के दूरस्थ ग्राम में उनके घर जा पहुंचे। शल्य चिकित्सा के लिए उन्हें भोपाल लेकर आए और जयप्रकाश अस्पताल में उन्हें भर्ती करवाया। रोज उन्हें देखने जाते । अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद चिकित्सकीय देखरेख के लिए सुदर्शन जी ने उन्हें भोपाल में रोक लिया और पूरे परिवार के एक सप्ताह तक रुकने-ठहरने की व्यवस्था की। क्या आश्चर्य कि समिधा में रखे सुदर्शन जी के चित्र को देखते ही उस युवक की आंखें आज भी भर आती हैं ? अरेरा कालोनी के एक मकान में चौकीदारी करने वाले व्यक्ति का छोटा-सा बेटा वहां की सायं शाखा में जाता था। बालसुलभ आकांक्षा में उसने अपनी बहन की शादी का निमंत्रण सुदर्शन जी को दे दिया। रात में शादी थी। उस उम्र में भी वे रात को 12 बजे विवाह में शामिल होने उसके घर पहुंचे। एक कमरे के घर में वर-वधु पक्ष के लोग जैसे-तैसे बैठे थे। यहां वहां सामान बिखरा पड़ा था। देखते ही सुदर्शन जी ने स्वयं झाडू उठायी, सबने मिल कर कमरे को व्यवस्थित किया । उन्होंने वर-वधु के गले में मालायें पहनायीं, दोनों को भेंट में वस्त्र दिए और आशीर्वाद प्रदान किया। रात में डेढ़ बजे जब वे बाहर निकले तो उन्हें विदा करने बाहर आए हुए घराती और बाराती इसी बात पर धन्य हुए जा रहे थे कि चैकीदारी करने वाले उनके जैसे निर्धन परिवार की खुशी में इतना बड़ा व्यक्ति शामिल हुआ।
वह रोज सुबह पैदल घूमने जाते थे। एक दिन घूमते-घूमते वे सुबह-सुबह अचानक अरेरा कालोनी में रहने वाले एक चिकित्सक के घर चले गए। घंटी बजाते ही उस चिकित्सक महोदय ने दरवाजा खोला तो एक अपरिचित चेहरा देखकर असमंजस में पड़ गए। उन्हें देखते ही सुदर्शन जी बोल उठे ‘‘मैं सुदर्शन, आपकी नाम-पट्टिका देखी तो परिचय करने चला आया।’’ फिर पूरे परिवार के साथ बैठकर वे गपशप करते रहे। इतने सहज और सरल थे वे। जिस सहजता से चौकीदार की बेटी की शादी में चले गए, उसी सहजता से एक प्रतिष्ठित चिकित्सक के घर पहुंच गए। अपने पद, नाम, प्रतिष्ठा और गुणसंपदा आदि किसी बात का कोई अहंकार नहीं।
उनके व्यक्तित्व के ये पहलू ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं हैं। बेशक वे आग्रही थे, लेकिन दुराग्रही नहीं। पूर्वाग्रही तो बिलकुल भी नहीं। वे सत्य के पक्षधर थे, पक्षपाती नहीं। 81 वर्ष का सुदीर्घ और सार्थक जीवन जीने के बाद किसी योगी की तरह ध्यानस्थ अवस्था में उनकी मृत्यु हुई। वे रायपुर में जन्मे, देश दुनिया में घूमे और रायपुर में ही देह त्याग दी। संघ मुख्यालय रेशमबाग में स्वयंसेवकों ने उन्हें सरसंघचालक के रूप में प्रथम प्रणाम दिया था तो रेशमबाग में ही अंतिम संस्कार से पहले पूर्व सरसंघचालक के रूप में स्वयंसेवकों ने उन्हें अंतिम प्रणाम दिया। इन दोनो संयोगों में संकेत शायद यह है कि उनका जन्म-मृत्यु का चक्र पूरा हुआ। जीवन अपनी सार्थकता को प्राप्त हुआ। आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। अब सुदर्शन जी स्मृति-शेष हैं। आज उनके पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन….