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अनाथ बच्चों को मुफ्त शिक्षा भी दे रहे, 23 वर्ष की आयु में लिख चुके हैं पहली किताब
बुरहानपुर। गांव की पगडंडियों से निकलकर शहर की सरपट दौड़ती सड़क के बीच गांव के युवा दिनेश महाजन ने शिक्षा के क्षेत्र में लंबी दूरी तय की है। वे बुरहानपुर जिले के छोटे से गांव बिरोदा के रहने वाले हैं। कृषक परिवार गोपाल माधव महाजन के सबसे छोटे सुपुत्र हैं। मिट्टी से जुड़ा उनका परिवार शिक्षा का महत्व बखूबी जानता था। दिनेश महाजन के माता-पिता शिक्षा से वंचित रहे, लेकिन स्वयं शिक्षित ना होने के बावजूद उन्होंने अपने तीनों बच्चों को बेहतरीन शिक्षा दिलवाने का हर संभव प्रयास किया।
दिनेश महाजन अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान है। वे वर्तमान में देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे है। साथ ही शैक्षणिक दायित्वों से भी जुड़े हुए हैं। वे हमेशा अपने लिए उस कक्षा का चयन करते हैं। जहां के स्टूडेंट्स पढ़ाई से कुछ दूर भागते से नजर आते हो। वे अपने छात्रों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ नैतिक शिक्षा की घुट्टी पिलाना नहीं भूलते। अपनी इस कड़क लेकिन रोचक शैली के कारण वे स्टूडेंट्स के बीच खासे लोकप्रिय भी है। यू तो वे इतिहास और राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक हैं लेकिन वे अपने खर्चे से अनाथ बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाते है। अपने माता-पिता से उन्होंने संस्कारों में नैतिक शिक्षा की घुट्टी के साथ-साथ शिक्षा के महत्व को भी आत्मसात किया है। वे कहते हैं कि माँ-पिताजी ने बचपन से ही समझाया कि जीवन जीने और अच्छा इंसान बनने के लिए शिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए वे बचपन से ही पढाई किताबों की तरफ आकर्षित रहे। जब उन्होंने यह देखा कि अनाथ बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं तो उन्होंने स्वयं से ही वादा किया कि वे जितना हो सकेगा इन बच्चों को अच्छी शिक्षा से जोड़ेंगे। वे कहते हैं समाज को शिक्षित करना हर एक शिक्षित व्यक्ति का दायित्व है। हमें भौतिक सुख में खोकर अपने सामाजिक दायित्वों को नहीं भुलाना चाहिए। इसलिए वे अपने जन्मोत्सव और त्योहार के समय वृद्धा आश्रम ही जाते हैं।
दिनेश महाजन की उपलब्धियों की सूची यही खत्म नहीं होती। उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही अपनी पहली किताब लिख ली। इस स्वलिखित पुस्तक महिला सशक्तिकरण के प्रतीक में उन्होंने इतिहास के गर्त में खो चुकी महान महिलाओं के चरित्र को आवाज देने की कोशिश की है।