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MP ELECTION 2023- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खामोश मेहनत, सफलता ने मचाया शोर

  • मतदान प्रतिशत बढ़ाने की नीति का कमाल

  • जीत का आधार आरएसएस ने ही किया तैयार

  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बार मध्यप्रदेश सहित पांचों राज्यों के चुनाव को बहुत गंभीरता से लिया

इंदौर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बार मध्य प्रदेश सहित पांचों राज्यों के चुनाव को बहुत गंभीरता से लिया। 2018 के विधानसभा चुनाव में संघ ने सीधा हस्तक्षेप नहीं किया था, तो भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। संघ इस बार के चुनाव में पिछले चुनावों की कमियों को दोहराने देना नहीं चाहता था, इसलिए संघ के चिंतकों ने इस चुनाव में वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर रणनीति बनाई।
इसी का परिणाम रहा कि तीन राज्यों में प्रचंड जीत मिली। इसमें संघ का माइक्रो मैनेजमेंट और मतदान प्रतिशत बढ़ाने की नीति कारगर साबित हुई। चुनाव से पहले भाजपा की गुटबाजी कई बार सतह पर भी देखी गई है, किंतु संघ ने कुनबे की कलह को कम करने में महती भूमिका निभाई। इसी कारण भाजपा इस चुनाव में पूरी तरह एकजुट होकर लड़ी।
ऐसे बढ़ाया मतदान प्रतिशत
जिस प्रकार से भाजपा ने अपने बूथ प्रभारी और पन्ना प्रभारी बनाए, उसी तरह संघ ने भी अपने प्रभारी बनाए थे। ये निर्दलीय प्रत्याशियों के एजेंट के रूप में हर मतदान केंद्र पर मौजूद थे। इससे संघ के पास तुरंत गोपनीय फीडबैक जा रहा था कि कौन से इलाके में मतदान कम हो रहा है और कहां स्थिति ठीक है। मतदान एजेंट से जानकारी मिलने के बाद जिस क्षेत्र में मतदान कम हो रहा था, वहां संघ के स्वयंसेवक घर-घर जाकर लोगों को मतदान करने के लिए आग्रह कर रहे थे। संघ ने मतदान से पूर्व ही ऐसे मतदाताओं को चिह्नित कर लिया था, जो शहर छोड़कर जा चुके हैं या किसी कारण से शहर में नहीं हैं। इन लोगों से संपर्क करके इन्हें मतदान के लिए आने का आग्रह किया। ये जिस शहर में रह रहे थे, वहां के स्वयंसेवकों ने भी उनसे संपर्क किया और उन्हें मतदान के लिए प्रेरित किया। मतदान वाले दिन दोपहर तीन बजे के बाद तो संघ के स्वयंसेवकों ने लोगों को घर से निकाल-निकालकर मतदान करवाया। यही कारण रहा कि कई मतदान केंद्रों पर दोपहर तीन से शाम छह बजे तक संघ के प्रयासों से बंपर वोटिंग हुई थी।
नाराज कार्यकर्ताओं को मनाया
बीते कई वर्षों से सत्ता में रहने के कारण भाजपा में कई क्षत्रप और सबके अपने-अपने गुट बन गए। हर नेता स्वयं को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान रहा था। ऐसे में संघ ने प्रदेश के बड़े नेताओं से चर्चा की और आपसी अंतर्कलह को कम करवाया। केंद्रीय मंत्री स्तर के बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने की रणनीति भी संघ की ही मानी जा रही है।
इसका असर यह हुआ कि न सिर्फ बड़े नेताओं की सीटें भाजपा ने जीतीं, बल्कि आसपास की कई सीटों पर भी इस रणनीति का प्रभाव पड़ा। संघ ने कार्यकर्ताओं में भी उत्साह जगाने का काम किया। जो कार्यकर्ता विधायकों या स्थानीय नेताओं के चलते नाराज थे, उन्हें समझाया कि हमें नेताओं के बजाय विचारधारा के साथ रहना चाहिए। संघ के प्रयासों का परिणाम यह रहा कि भाजपा के कार्यकर्ता पूरे चुनाव में हर समय सक्रिय रहे।
राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता
संघ का मूल काम ही जनजागरण है। इस चुनाव में जनजागरण के लिए संघ ने मोहल्ला बैठकों का आयोजन किया। इसमें पावर पाइंट प्रेजेंटेशन (पीपीटी) के माध्यम से लोगों को बताया गया कि स्थानीय मुद्दों के बजाय हमें राष्ट्रहित में सोचना चाहिए। तथ्यों के साथ समझाया गया कि इस चुनाव में राष्ट्रवादी ताकतों के जीतने से राज्यसभा में भी राष्ट्रवादी विचारधारा मजबूत होगी। संघ के एजेंडे में श्रीराम मंदिर और कश्मीर के अलावा भी कई राष्ट्रीय मुद्दे हैं। लोगों को बताया कि जनसंख्या नियंत्रण कानून, समान नागरिक संहिता, सीएए जैसे कई कानून राज्यसभा में बहुमत से पारित होने के बाद ही लागू किए जा सकते हैं। इन्हें लागू करने के लिए राज्य के इन चुनावों को जीतना बेहद आवश्यक है।
भागवत का असर, नोटा बेअसर
संघ ने इस बार इंटरनेट मीडिया का भरपूर उपयोग किया। संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का नोटा को लेकर एक वीडियो आया था। इसमें उन्होंने नोटा के बजाय मौजूद विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ को चुनने की बात कही थी। इस वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर बहुप्रसारित किया गया। इसका असर यह हुआ कि पिछले चुनाव में नोटा को 1.4 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार घटकर एक प्रतिशत से भी कम रहे।
भाजपा को भी आईना दिखा देता है संघ
आमतौर पर संघ भाजपा को समर्थन करता है। वो कभी किसी प्रत्याशी को चुनाव में नहीं उतारता है। भाजपा को अपनी तरफ से नाम जरूर सुझाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा में भाजपा ने विट्ठल शंकर अवस्थी को अपना प्रत्याशी बनाया था। संघ ने प्रत्याशी बदलने का आग्रह भाजपा से किया था, जिसे नहीं माना गया। संघ अपने स्वयंसेवक अशोक कोठारी को निर्दलीय मैदान में उतार दिया और चुनाव में करीब 10 हजार वोट से जीता भी दिया। इस जीत से यह पता चलता है कि संघ के जमीनी नेटवर्क के सामने चुनाव चिन्ह और दल भी काम नहीं करता है।

 

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